फिर कोई आया दिलेज़ार!* नहीं कोई नहीं
राहरो** होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चराग़
सो गयी रास्ता तक के हर इक राह गुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुन्दला दिए क़दमों के सुराग़^
गुल करो शमएं^^, बढ़ा दो मय-वो-मीना-वो-अयाग*^
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल^* कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा.
*दुखी, बेबस; **मुसाफिर; ^निशान; ^^मोमबत्तियां; *^शराब, शराब का जग, पानदान; ^*तालाबंद
जब भी फैज़ पढ़ता हूँ, दिलो-दिमाग कुछ इस तरह खुल जाते हैं जैसे किसी ने मन के कमरे का रोशनदान खोल दिया हो, जैसे किसी ने करीने से सजा दी हों दिमाग में बिखरी इबारतें, जैसे किसी ने राह दिखा दी हो दिल को आगे आने वाली.
1 comment:
bahut khoob likha hai aapne....
keep writing.. :)
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