Friday, September 10, 2010

फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था



फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था,
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था

वो के खुशबु की तरह फैला था मेरे चार-सूँ,
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था 

रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था

खुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबियत के गिलाफ़
वरना कब इक-दूसरे को हमने पहचाना न था

याद करके और भी तक़लीफ़ होती थी अदीम
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था

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