फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था,
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था
वो के खुशबु की तरह फैला था मेरे चार-सूँ,
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था
खुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबियत के गिलाफ़
वरना कब इक-दूसरे को हमने पहचाना न था
याद करके और भी तक़लीफ़ होती थी अदीम
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
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