Monday, January 19, 2009

ये बेदिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें

ये बेदिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
इधर भी कौन है? दरिया के पार क्या उतरें?

तमाम दौलते-जान हार दी मोहब्बत में
जो ज़िन्दगी से लिए थे उधार क्या उतरें

हजारों जाम से टकरा के जाम खाली हों
जो गए हैं दिलों में, गुबार क्या उतरें

बसाने-ख़ाक, सरे-कू--यार बैठे हैं
अब इस मकाम से हम खाकसार क्या उतरें

इतरो-उद, जामो-सुबू, साजो-सरोद
फकीरे-शहर के घर शहरयार क्या उतरें

हमें मजाल नही है कि बाम तक पहुंचें
उन्हें ये आर, सरे-रहगुज़र क्या उतरें

जो ज़ख्म दाग बने हैं वो भर गए फ़राज़
जो दाग जख्म बने हैं वो यार क्या उतरें

- अहमद फ़राज़


3 comments:

Jagjit said...

No compliments can do justice to the scale of this poem. Loved it. Thanks for sharing.

Rai said...
This comment has been removed by the author.
Rai said...

WOW! great one...
BTW, I have shifted to a new blog :http://rakaonly.wordpress.com