ये बेदिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
इधर भी कौन है? दरिया के पार क्या उतरें?
तमाम दौलते-जान हार दी मोहब्बत में
जो ज़िन्दगी से लिए थे उधार क्या उतरें
हजारों जाम से टकरा के जाम खाली हों
जो आ गए हैं दिलों में, गुबार क्या उतरें
बसाने-ख़ाक, सरे-कू-ऐ-यार बैठे हैं
अब इस मकाम से हम खाकसार क्या उतरें
न इतरो-उद, न जामो-सुबू, न साजो-सरोद
फकीरे-शहर के घर शहरयार क्या उतरें
हमें मजाल नही है कि बाम तक पहुंचें
उन्हें ये आर, सरे-रहगुज़र क्या उतरें
जो ज़ख्म दाग बने हैं वो भर गए फ़राज़
जो दाग जख्म बने हैं वो यार क्या उतरें
- अहमद फ़राज़
इधर भी कौन है? दरिया के पार क्या उतरें?
तमाम दौलते-जान हार दी मोहब्बत में
जो ज़िन्दगी से लिए थे उधार क्या उतरें
हजारों जाम से टकरा के जाम खाली हों
जो आ गए हैं दिलों में, गुबार क्या उतरें
बसाने-ख़ाक, सरे-कू-ऐ-यार बैठे हैं
अब इस मकाम से हम खाकसार क्या उतरें
न इतरो-उद, न जामो-सुबू, न साजो-सरोद
फकीरे-शहर के घर शहरयार क्या उतरें
हमें मजाल नही है कि बाम तक पहुंचें
उन्हें ये आर, सरे-रहगुज़र क्या उतरें
जो ज़ख्म दाग बने हैं वो भर गए फ़राज़
जो दाग जख्म बने हैं वो यार क्या उतरें
- अहमद फ़राज़
3 comments:
No compliments can do justice to the scale of this poem. Loved it. Thanks for sharing.
WOW! great one...
BTW, I have shifted to a new blog :http://rakaonly.wordpress.com
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