मेरी प्रगत या अगति का
यह मापदंड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ।
मुझ पर हर और से चोटें पड़ रही हैं,
कोंपलें उग रही हैं,
पत्तियां झाड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ।
अगर इस लड़ाई में मेरी साँसे उखड गयीं,
मेरे बाजु टूट गए,
मेरे चरणों में आंधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गयीं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना-
तब और भी बड़े पैमाने पर,
मेरे ह्रदय में असंतोष उबल रहा होगा,
मेरे उम्मीदों के सैनिकों के पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आजमाने को
धूल में खो जाने को या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन् की कंदीलें जल रही होंगी।
ये जो चाँद से फफोले तलुओं में दिख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं।
पिंडलियों की उभरी हुयी नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं।
मुहँ पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियां
कसम देती हैं।
कुछ हो अब, तय है-
मुझको आशंकाओं पर काबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जागते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है-
जिनमें मैं हार चुका हूँ।
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदंड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ.
2 comments:
bahut din baad Hindi mein acchhi kavita padhi hai..
Hey - thanks for stopping by - of course I am not mad at you. I had accidently deleted my whole blog list and am slowly adding people as they stop by - so glad that you did :) missed you :)
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