अजनबी शहर नहीं है कोई
कौन-सा शहर है वो
जिसमें कभी
चाँद निकला न हो दिलदारी का
ज़िक्र होता ही न हो, जिसके मसीहाओं में,
दिल के बीमारों का या इश्क की बीमारी का
अजनबी शहर नहीं है कोई
कौन-सा शहर है वो जिसके गली-कूचों की दीवारों पर
कोई अफ़साना लिखा ही न गया हो अब तक
जिसके बाज़ारों से सेहरा की तरफ़
कोई अपने से जुदा ही न गया हो अब तक
अजनबी शहर नहीं है कोई
कौन-सा शहर है वो जिसने कभी
अपने तरह-दारों को,
कज-कुलह वालों को,
फनकारों को
फूल की तरह सजाया न हो गुलदानों में
शमा की तरह जलाया न हो बेहोश तरब-खानों3 में
मय की मानिंद उड़ेला न हो पैमानों में
और गिराया न हो पैमानों से
अजनबी शहर नहीं है कोई
कौन-सा शहर है वो
जिसने कभी
अपने दीवानों के कँधों पे सजाई न सलीब
अजनबी शहर नहीं है कोई
शाम जिस शहर में हो
हम उसी शहर के हों
और काँधों पे सलीबों की जो तहरीरें हैं
शहरियत के वही परवाने नहीं
अपने अफ़साने उसी शहर के अफ़साने नहीं
हम उसी शहर के दीवाने बनें
अजनबी शहर नहीं है कोई
-राही मासूम रज़ा, ‘ग़रीबे-शहर’
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